"कहाँ जा रहे हो?" घर से निकलते ही किसी ने आवाज़ दी और अपना मिजाज़ खराब. अब उन 'पडोसी' साहब को मुस्कुराते हुए बताओ की भाई यूँही ज़रा बाज़ार जा रहे थे. बड़े शहरों में ये नखरे नहीं हैं. वहाँ कोई कभी नहीं पूछता "कहाँ जा रहे हो?" " दो दिन से दिखे नहीं कहीं गए थे क्या?" "कल घर पर कौन आई थी, फ्रेंड है क्या?" और भी जाने क्या क्या.बड़े शहरों में बड़े आज़ाद ख्याल लोग रहते हैं.उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि "कल आपको देखा था बाजार में सिगरेट थी आपके हाथ में !" हाँ ये सब आज़ादी होते हुए भी अपना 'छोटा शहर' हमेशा याद आता है.
सिगरेट का भी अजीब किस्सा है अपने देश में. असल में किस्सा अजीब सिगरेट का नहीं लड़कियों का है.जब तक वो गर्लफ्रेंड हैं तब तक तो आप सिगरेट पीते हुए बड़े 'कूल' लगते हैं मगर बीवी बनते ही पहली डिमांड सिगरेट छोड़ने की हो जाती है. अब शम्मो को ही ले लीजिए. शम्मो- मेरी पहली गर्लफ्रेंड.शमिता नाम था उसका. हम कॉलेज के फ्रेंड्स उसे 'शम्मो' बुलाते. कॉलेज में जिधर से भी गुज़र जाती लड़के आह भरते नज़र आते. और वो हर खूबसूरत लड़की की तरह किसी को भाव नहीं देती. कभी किसी लड़के से बात नहीं करती. हाँ कभी कभी रिक्शा वाले 'भैया' या कैंटीन वाले 'भैया' से ज़रूर बात करती थी ! कॉलेज में हमारा भी बड़ा नाम था. हमेशा टॉप करते. और हर तेज लड़के की तरह किसी को भी अपनी कॉपी नहीं देते. एक दिन शम्मो हमसे हमारी कॉपी मांगने आ गयीं.हमने कॉपी दे दी (असल में हम दिल दे रहे थे) और फिर यूँ हुआ की अगले दिन जब शम्मो ने कॉपी वापस की तो 'गलती से' उनका एक खास कागज हमारी उस कॉपी में रह गया ! और इस तरह अथ श्री प्रेम कथा शुरू हो गयी. मगर छोटे शहर की बड़ी मुश्किल है गर्लफ्रेंड से मिलने की जगह न होना. जिसे आप नहीं जानते वो आपको जानता होता है (वो आपके बाबूजी का दोस्त होता है) और गर्लफ्रेंड को तो जैसे सब जानते हैं! फिर भी इस मुश्किल में भी हमने एक छोटी सी जगह ढूंढ ली थी.जंगल जैसी एक जगह थी. वहीँ एक पत्थर के पीछे हम बैठे रहते-खामोश. और ख़ामोशी तब टूटती जब मैं सिगरेट सुलगाता. शम्मो मुझे छल्ले बनाने को कहती और मैं तरह तरह से मुंह बना कर बस धुंआ ही निकालता ! कॉलेज खत्म होने पर ये सिलसिला कम हो गया. एक छोटी सी नौकरी अपने ही शहर में लग गयी थी और घर में हमारी शादी की बात भी चल रही थी. और हमारे पुराने ख्यालात वाले घर में शम्मो से हमारी शादी कराने को कोई तैयार नहीं हुआ. वो घर जहाँ हमारी हर बात (जिद) पूरी की जाती थी वहाँ हमारी शादी शम्मो से इसलिए नहीं हो रही थी क्यूंकि हमारी 'कास्ट' एक नहीं थी. वैसे शम्मो के घर वालों को इस से एतराज़ नहीं था.एक दिन हमने खुद ही शम्मो से शादी कर ली और सारे एतराज़ के बावजूद हमें घर से निकाला नहीं गया. हाँ कोई हमसे बात नहीं करता था. खैर! बात भी कहाँ से कहाँ आ गयी. तो शादी की पहली रात जब हमने शम्मो से शंकर भगवन स्टाइल में कहा-"आज हमारी नयी जिंदगी शुरू हो रही है. आज हमसे कोई गिफ्ट मांगो हम तुम्हें तथास्तु कह देंगे !" शम्मो ने कहा-" सिगरेट पीना छोड़ दो !"
जिस नौकरी के भरोसे हमने शम्मो से जो शादी कर ली थी उस नौकरी और शादी की भी कहानी बड़ी अजीब है. मेरे बाबूजी एक स्कूल में क्लर्क थे.बाबूजी ने अपनी बहुत कम सैलरी में भी कभी मेरी जिद के लिए कोई कटौती नहीं की.अपने सारे बचपन में मैंने बाबूजी को सिर्फ धोती-कुरता पहने देखा. उनके पास दो जोड़ी सफ़ेद धोती-कुरता था. इस से लोगों को पता नहीं चलता कि बाबूजी के पास कितने कपडे हैं.हाँ मेरे लिए हर त्यौहार में नए कपडे ज़रूर खरीदे जाते. माँ को भी मैंने कभी कोई नयी साडी पहने कभी नहीं देखा. हाँ कभी कभी रिश्ते में कोई शादी होती तो वो बक्से से अपनी संजो कर रखी साडी निकालती.गहने नाम मात्र को. हाँ मेरी सारी इच्छाएं ज़रूर पूरी होती थीं. यूँही हम बड़े हुए. अपने छोटे शहर के सबसे बड़े कॉलेज से पढाई कर के निकले. नौकरी ढूँढने लगे.जगह जगह इंटरव्यू दे कर आते. नौकरी कहीं नहीं लगती. हमारी बड़ी इच्छा थी की अपनी पहली सैलरी से माँ के लिए एक अच्छी सी साडी खरीदें. माँ की तबीयत अक्सर खराब रहती. घर में ये भी बात उठती की शादी ही करा दी जाए मेरी. माँ को इस से आराम मिलता. मगर हम बिन नौकरी के शादी के लिए तैयार नहीं थे.और एक दिन हमारी नौकरी लग गयी. अपने ही शहर में. माँ की तबीयत बहुत ज्यादा खराब रहने लगी थी. शादी की बात भी पूरे जोर से चलने लगी थी. मगर इस शादी से पहले बहुत कुछ होना बाकी था.माँ नहीं रही. हमारी जिस पहली सैलरी को माँ की नयी साडी में लगना था वो माँ के श्राद्ध में लगी. और इस तरह माँ ने कभी भी अपनी बहु को नहीं देखा !
कुछ सालों बाद मेरी अच्छी नौकरी लग गयी. बड़े शहर में. शुरू शुरू में तो बड़ा अजनबी टाइप लगा ये शहर मगर जल्दी ही हम इस शहर के रंग में रंग गए थे.शम्मो को तो नया शहर कुछ ज्यादा ही भा गया था. हम हर 'वीकेंड' पर बाहर खाने जाते. फिल्में देखते, कभी शहर से बाहर घूमने चले जाते. इस शहर में खर्चा बहुत था.घर का किराया भी कितना ज्यादा था. और तरह तरह के इंश्योरेंस प्लान्स में हर महीने पैसे कट जाते.और सन्नी (हमारा बेटा) के भी तो कितने खर्चे थे.महीने की बीस तारीख होते तक पैसे खत्म हो जाते मगर कोई बात नहीं 'क्रेडिट कार्ड' तो था ना. ऐसे में बाबूजी को साथ रखना मुश्किल था. अपने ही खर्च बहुत ज्यादा थे. लिहाजा कभी-कभी मैं उनसे मिलने 'अपने शहर' चला जाता. बाबूजी से भी मिल लेता और अपने पुराने दोस्तों से भी. जब भी बाबूजी से मिलने जाता वो पूछते- "इसी शहर में कोई नौकरी क्यूँ नहीं ढूंढ लेते? अब तो यहाँ भी अच्छी अच्छी कंपनी खुल गयी हैं." मैं हर बार उनसे कहता -" ढूंढ रहा हूँ. मैं भी इसी कोशिश में हूँ कि यहाँ आ जाऊं." और कुछ दो-चार सेंटीमेंटल बातें कर लेता. बड़े शहरों में करियर ग्रोथ के बारे में बताता. बाबूजी सारी बातों में हाँ में हाँ मिलाते.
इस बार जब बाबूजी से मिलने गया तो शम्मो और सन्नी को भी साथ ले गया.बाबूजी बहुत खुश हुए.अब तक हमारी शादी कि नाराज़गी खत्म हो चुकी थी. कुछ देर बाद शम्मो अपने घर चली गयी, अपने माँ बाबूजी से मिलने. शाम में हमें राकेश ने अपने घर बुलाया था. खाने पर. राकेश मेरा कॉलेज का दोस्त था. हम शाम में उसके घर पहुंचे. बड़ा अच्छा माहौल था.हम कॉलेज में की गयी अपनी सारी बदमाशियां याद कर रहे थे और खूब हंस रहे थे. अचानक राकेश का पुराना शौक जोश मारने लगा. वो शम्मो का हाथ देखने लगा.शम्मो की तारीफ पर तारीफ़ होने लगी. तभी मैंने राकेश की खिंचाई करने की सोची.मैंने कहा-" ज्योतिषी महोदय. ज़रा मेरा हाथ देखिये और बताइए की हमारी मौत कब, कहाँ और कैसे होगी?" राकेश ने मुस्कुराते हुए कहा "वो तो आपका माथा देख कर ही बताया जा सकता है जनाब. तुम्हारी मौत कब होगी ये तो पता नहीं लेकिन वहीँ होगी जहाँ तुम्हारे बाबूजी की मौत होगी !" मैं ये जवाब सुन कर सन्न रह गया था. अचानक मेरी आँखों के आगे मेरे बचपन की सारी बातें घूम गयीं. मैं उसी वक्त उठा और बाबूजी को "ओल्ड एज होम' से लेने चल पड़ा
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सुंदर प्रस्तुति,,के लिए बधाई,,,,,
ReplyDeleteRECENT POST,,,इन्तजार,,,
achha likha hai. bade sheher mein sabki yahi kahaani hai sahab
ReplyDeletegood, bandh kar rakha hai lekin tartamya me gadbadi haj.
ReplyDeleteसमझ नहीं आ रहा तारीफ कैसे की जाए.....दरअसल तारीफ बराबर की हो तो मज़ा आता है पर इतने वज़न के शब्द मेरे पास नहीं हैं....पर जो भी हो एक अर्सा बाद ऐसी रचना मिली जिसे पढ़ते पढ़ते आँखे नम हो गयीं.
ReplyDeleteSir aise sab kahaniya padke lagta hai ki aap ke andar bhi bht gehri soch wala 1 kavi,lekhak aur bht acha insaan hai....waitin for sm more lyk dis!!!
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