बहुत 
पहले की बात है। हमारे-आपके दादा,परदादा के भी पहले की बात। (डायनासॅार के 
समाप्त होने के बाद की)। किसी शहर में एक आदमी रहता था जो स्वयं को पंडित 
बताता था। वह रोज़ सर पर चंदन तिलक लगाता, पोथी-पतरा लेता और किसी सड़क के 
किनारे बैठ जाता। वहाँ से गुज़रने वाले लोगों में से वो किसी एक को अपने 
पास बुलाता और उसे उसका भविष्य बताता।वो उसे बताता कि 'उसके हाथ में कितनी 
अच्छी रेखाएँ हैं, वो क्या है और असल में 
क्या बन सकता है, वो यूँ तो जीवन में बहुत खुश है लेकिन उसे पता नहीं कि 
उसे इससे ज़्यादा मिल सकता है और इन सारी उन्नतियों और खुशियों के बीच है 
कोई ग्रह जिसकी शांति करवाने से वह व्यक्ति दुनिया का सबसे संतुष्ट व्यक्ति
 बन सकता है।' अब वह व्यक्ति जो अब तक अपनी ज़िन्दगी से संतुष्ट और खुश था,
 वह बेचैन हो उठता है। अब वह 'क्या से क्या ' बनना चाहता है (बस उसे पता 
नहीं है कि क्या बनना चाहता है,ख़ैर! जिस दिन बनेगा उस दिन जान ही जाएगा)। 
इस प्रकार एक पोंगा पंडित की बातों में आकर वह व्यक्ति जो अपने जीवन से 
संतुष्ट था वह 'और' पाने की लालच में पूर्णतः असंतुष्ट जीवन जीने लगता है। 
वो जो अब तक जीवन से खुश था, वह जीवन को दु:खों की खान मानने लगता है। जीवन
 में इस तरह के कई पोंगाओं से हम सबका पाला पड़ता है जो या तो दूसरों को 
'और' पाने का लालच दिखाते हैं या बाबाजी का ठुल्लू पाने के पीछे जीवन भर 
दौड़ते रहते हैं।
 
 कथा यहीं समाप्त नहीं होती। इस  पोंगा ने पुनः 
इस पापपूर्ण कलियुग में जन्म लिया। पहला जो स्वयं को पंडित बताता था उसने 
इस जन्म में इस प्रकार की पोंगापंथी का विरोध किया। उसने हर उस बात का 
विरोध किया जो समाज को पीछे की ओर धकेलती थी। उसने महिलाओं को बताया कि तुम
 अपने परिवार वालों से संतुष्ट हो, तो तुम जानती नहीं हो कि तुम क्या कर 
सकती हो मगर तुममें और इस 'क्या' के बीच है कोई ग्रह। वो ग्रह पिता, भाई, 
पति कोई भी हो सकता है इनका विरोध करना अत्यंत आवश्यक है। उसने 
विद्यार्थियों को बताया कि शिक्षक किस प्रकार उन्हें मूर्ख बना रहे हैं, 
शिक्षकों को बताया कि किस प्रकार कॅालेज प्रशासन उन्हें मूर्ख बना रहा है। 
विद्यार्थी भी क्या से क्या हो सकते हैं और शिक्षक भी क्या से क्या ही हो 
सकते हैं। ये बातें उस महान पंडित से पहले किसी को पता नहीं थी। अब छ: 
महीने विद्यार्थियों ने कॅालेज बंद करवाया फिर अगले छः महीने शिक्षकों ने। 
यही बातें उसने मजदूरों, रिक्शा वालों, ठेला वालों, सुनार, लुहार, मोची... 
जो भी सामने आता गया, सबको बताईं कि किस प्रकार उन्हें 'क्या से क्या ' 
बनना चाहिए और कौन है जो ग्रह बनकर उनके और 'क्या' के बीच आ रहा है। इस 
प्रकार असंतुष्टों का एक पूरा समाज खड़ा हो गया जिसे जीवन के हर पहलू से, 
समाज के हर अंग से शिकायत रहती है। वो सब 'क्या से क्या' बन जाना चाहते हैं
 और समाज को भी वही बनाना चाहते हैं। 
 
 पोंगापंथ अब रूप बदल कर लालपंथ के नाम से जाना जाता है।